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Saturday 25 April 2015

संत कंवर राम की प्रभु भक्ति

सिंध में कंवर राम नामक एक प्रसिद्ध संत हो गए हैं। वे गांव-गांव जाकर भगवद्भजन के माध्यम से भक्ति का प्रचार करते और लोगों को अध्यात्म, नैतिक गुणों तथा सांप्रदायिक सद्भाव की सीख देते।
एक बार उनका मुकाम डहरकी नामक एक गांव में था। एक दिन एक गरीब विधवा का एकमात्र शिशु ईश्वर को प्यारा हो गया और वह उसके वियोग में जोर-जोर से विलाप करने लगी। उसका शोक एक वृद्ध पुरुष से देखा न गया। 
उसने महिला से कहा, 'बेटी, वृथा शोक न कर। यहां संत कंवर राम नामक एक महात्मा पधारे हैं। उनका आज रात्रि में मंदिर में भजन-कीर्तन है। तू संत से उसके चिरायु होने का आशीर्वाद मांगना। उनकी कृपा से तुम्हारा शिशु जीवित हो सकता है। मगर इसके मृतक होने की बात उनसे छिपाए रखना।'
महिला ने सुना, तो उसके मन में आशा जागी और अपने मृत बालक को चादर में लपेटकर वह रात्रि को मंदिर पहुंच गई और शिशु को कंवर राम जी के चरणों पर रखकर कहा, 'भगत साहिब, मैं अपने इस नन्हे शिशु के चिरजीवन की कामना लिए आपके पास आई हूं। कृपया इसे भागवत्राम का मंत्र देकर मुझ अबला को कृतार्थ करें।'  

महिला की बातों पर विश्वास करके संत जी ने शिशु को भागवत्राम का श्रवण कराया। मंत्र के समाप्त होने की देर थी कि बेजान शिशु के शरीर में जान आ गई और वह हाथ-पैर हिलाने लगा।
यह चमत्कार देखते ही महिला संत जी के चरणों पर गिर पड़ी। उसने सारी बात बताकर असत्य बोलने के लिए क्षमा मांगी। किंतु कंवर रामजी को बड़ा दुख हुआ।
उन्होंने महिला से कहा, 'आपको ऐसा नहीं करना था। हमें प्रभु की करनी को' होनी मानकर स्वीकार कर लेना चाहिए। इसी में हमारी भलाई है। यह तो अच्छा ही हुआ कि प्रभु ने मेरी लाज रख ली और मुझे दुविधा से बचा लिया।'  

कैसे हुई कालभैरव की उत्पत्ति

तंत्राचार्यों का मानना है कि वेदों में जिस परम पुरुष का चित्रण रुद्र में हुआ, वह तंत्र शास्त्र के ग्रंथों में उस स्वरूप का वर्णन 'भैरव' के नाम से किया गया, जिसके भय से सूर्य एवं अग्नि तपते हैं। इंद्र-वायु और मृत्यु देवता अपने-अपने कामों में तत्पर हैं, वे परम शक्तिमान 'भैरव' ही हैं। भगवान शंकर के अवतारों में भैरव का अपना एक विशिष्ट महत्व है।
तांत्रिक पद्धति में भैरव शब्द की निरूक्ति उनका विराट रूप प्रतिबिम्बित करती हैं। वामकेश्वर तंत्र की योगिनीह्रदयदीपिका टीका में अमृतानंद नाथ कहते हैं- 'विश्वस्य भरणाद् रमणाद् वमनात्‌ सृष्टि-स्थिति-संहारकारी परशिवो भैरवः।'
भ- से विश्व का भरण, र- से रमश, व- से वमन अर्थात सृष्टि को उत्पत्ति पालन और संहार करने वाले शिव ही भैरव हैं। तंत्रालोक की विवेक-टीका में भगवान शंकर के भैरव रूप को ही सृष्टि का संचालक बताया गया है।

श्री तत्वनिधि नाम तंत्र-मंत्र में भैरव शब्द के तीन अक्षरों के ध्यान के उनके त्रिगुणात्मक स्वरूप को सुस्पष्ट परिचय मिलता है, क्योंकि ये तीनों शक्तियां उनके समाविष्ट हैं-

'भ' अक्षरवाली जो भैरव मूर्ति है वह श्यामला है, भद्रासन पर विराजमान है तथा उदय कालिक सूर्य के समान सिंदूरवर्णी उसकी कांति है। वह एक मुखी विग्रह अपने चारों हाथों में धनुष, बाण वर तथा अभय धारण किए हुए हैं।

'र' अक्षरवाली भैरव मूर्ति श्याम वर्ण हैं। उनके वस्त्र लाल हैं। सिंह पर आरूढ़ वह पंचमुखी देवी अपने आठ हाथों में खड्ग, खेट (मूसल), अंकुश, गदा, पाश, शूल, वर तथा अभय धारण किए हुए हैं।

'व' अक्षरवाली भैरवी शक्ति के आभूषण और नरवरफाटक के सामान श्वेत हैं। वह देवी समस्त लोकों का एकमात्र आश्रय है। विकसित कमल पुष्प उनका आसन है। वे चारों हाथों में क्रमशः दो कमल, वर एवं अभय धारण करती हैं।

स्कंदपुराण के काशी- खंड के 31वें अध्याय में उनके प्राकट्य की कथा है। गर्व से उन्मत ब्रह्माजी के पांचवें मस्तक को अपने बाएं हाथ के नखाग्र से काट देने पर जब भैरव ब्रह्म हत्या के भागी हो गए, तबसे भगवान शिव की प्रिय पुरी 'काशी' में आकर दोष मुक्त हुए।

ब्रह्मवैवत पुराण के प्रकृति खंडान्तर्गत दुर्गोपाख्यान में आठ पूज्य निर्दिष्ट हैं- महाभैरव, संहार भैरव, असितांग भैरव, रूरू भैरव, काल भैरव, क्रोध भैरव, ताम्रचूड भैरव, चंद्रचूड भैरव। लेकिन इसी पुराण के गणपति- खंड के 41वें अध्याय में अष्टभैरव के नामों में सात और आठ क्रमांक पर क्रमशः कपालभैरव तथा रूद्र भैरव का नामोल्लेख मिलता है। तंत्रसार में वर्णित आठ भैरव असितांग, रूरू, चंड, क्रोध, उन्मत्त, कपाली, भीषण संहार नाम वाले हैं।

भैरव कलियुग के जागृत देवता हैं। शिव पुराण में भैरव को महादेव शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। इनकी आराधना में कठोर नियमों का विधान भी नहीं है। ऐसे परम कृपालु एवं शीघ्र फल देने वाले भैरवनाथ की शरण में जाने पर जीव का निश्चय ही उद्धार हो जाता है। 

 

क्यों की जाती है पीपल की पूजा?

एक पौराणिक कथा के अनुसार लक्ष्मी और उसकी छोटी बहन दरिद्रा विष्णु के पास गई और प्रार्थना करने लगी कि हे प्रभो! हम कहां रहें? इस पर विष्णु भगवान ने दरिद्रा और लक्ष्मी को पीपल के वृक्ष पर रहने की अनुमति प्रदान कर दी। इस तरह वे दोनों पीपल के वृक्ष में रहने लगीं।

विष्णु भगवान की ओर से उन्हें यह वरदान मिला कि जो व्यक्ति शनिवार को पीपल की पूजा करेगा, उसे शनि ग्रह के प्रभाव से मुक्ति मिलेगी। उस पर लक्ष्मी की अपार कृपा रहेगी।
शनि के कोप से ही घर का ऐश्वर्य नष्ट होता है, मगर शनिवार को पीपल के पेड़ की पूजा करने वाले पर लक्ष्मी और शनि की कृपा हमेशा बनी रहेगी।

इसी लोक विश्वास के आधार पर लोग पीपल के वृक्ष को काटने से आज भी डरते हैं, लेकिन यह भी बताया गया है कि यदि पीपल के वृक्ष को काटना बहुत जरूरी हो तो उसे रविवार को ही काटा जा सकता है।
गीता में पीपल की उपमा शरीर से की गई है। 'अश्वत्थम् प्राहुख्‍ययम्' अर्थात अश्वत्‍थ (पीपल) का काटना शरीर-घात के समान है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी पीपल प्राणवायु का केंद्र है। यानी पीपल का वृक्ष पर्याप्त मात्रा में कार्बन डाई ऑक्साइड ग्रहण करता है और ऑक्सीजन छोड़ता है।

संस्कृत में को 'चलदलतरु' कहते हैं। हवा न भी हो तो पीपल के पत्ते हिलते नजर आते हैं। ' पात सरिस मन डोला'- शायद थोड़ी-सी हवा के हिलने की वजह से तुलसीदास ने मन की चंचलता की तुलना पीपल के पत्ते के हिलने की गति से की गई है।

नचिकेता की कहानी

शाम का समय था। पक्षी अपने-अपने
घोसले की ओर लौट रहे थे, पर वह बढ़ा जा रहा था, बिना किसी थकान और पछतावे के। उसे अपनी मंजिल तक पहुंचना ही था। यही उसके पिता की आज्ञा थी। उसका लक्ष्य था यमपुरी। वही यमपुरी, जहां यमराज निवास करते थे। उसे यमराज से ही मिलना था। यही उसके पिता का आदेश था।

लगातार तीन पहर तक चलने के बाद वह यमपुरी के द्वार पर जा पहुंचा। वहां पर दो यमदूत पहरा दे रहे थे।

उन्होंने जब उस बालक को देखा तो आश्चर्यचकित रह गए। कौन है यह बालक, जो मौत के मुंह में चला आया? दोनों सोचने लगे। उसमें से एक यमदूत ने गरजती आवाज में उससे पूछा- 'हे बालक, तू कौन है और यहां क्या करने आया है?'
मेरा नाम नचिकेता है और मैं अपने पिता की आज्ञा से यमराजजी के पास आया हूं।' उस बालक ने धीरता के साथ उत्तर दिया।

'लेकिन क्यों मिलना चाहते हो तुम यमराज से?' दूसरे यमदूत ने प्रश्न किया।

'क्योंकि मेरे पिताश्री ने उन्हें मेरा दान कर दिया है।'

नचिकेता की बात सुनकर दोनों यमदूत हैरान रह गए। ये कैसा अजीब बालक है। इसे मृत्यु का भय नहीं। यमराज से मिलने चला आया। उन्होंने उसे डराना चाहा, पर नचिकेता अपने निर्णय के आगे सूई की नोंक भर भी न डिगा। वह बराबर यमराज से मिलने की इच्‍छा प्रकट करता रहा।

इस पर एक यमदूत बोला- 'वे इस समय यमपुरी में नहीं हैं। तीन दिन बाद लौटेंगे, तभी तुम आना।'
'कोई बात नहीं, मैं तीन दिन तक प्रतीक्षा कर लूंगा।' नचिकेता ने उत्तर दिया और वहीं द्वार के पास बैठ गया। सहसा उसकी आंखों के आगे बीती हुई एक-एक घटना चित्र की भांति घूमने लगी।

नचिकेता के पिता ऋषि वाजश्रवा ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया था। विद्वानों, ऋषि-मुनियों और ब्राह्मणों को उसने यज्ञ में आमंत्रित किया। ब्राह्मणों को आशा थी कि यज्ञ की समाप्ति पर वाजश्रवा की ओर से उन्हें अच्छी दक्षिणा मिलेगी, लेकिन जब यज्ञ समाप्त हुआ और वाजश्रवा ने दक्षिणा देनी शुरू की तो सभी आश्चर्यचकित रह गए। दक्षिणा में वह उन गायों को दे रहा था, जो कि बूढ़ी हो चुकी थीं और दूध भी न देती थीं।

यज्ञ के प्रारंभ होने से पूर्व वाजश्रवा ने घोषणा की थी वह यज्ञ में अपनी समस्त सं‍पत्ति दान कर देगा। इसी कारण यज्ञ में कुछ ज्यादा ही लोग उपस्‍थित हुए थे। पर जब उन्होंने दान का स्तर देखा तो मन ही मन नाराज होकर रह गए। क्रोध तो उन्हें बहुत आया पर उनमें से कोई कुछ न कह सका। 
वाजश्रवा के पुत्र नचिकेता से यह न देखा गया। संपत्ति के प्रति अपने पिता का यह मोह उसे बर्दाश्त न हुआ। वह अपने पिता के पास जाकर बोला- 'पिताजी, ये आप क्या कर रहे हैं?'

'देखते नहीं हो, मैं ब्राह्मणों को दान दे रहा हूं।' वाजश्रवा ने कहा।

'लेकिन ये गायें तो बूढ़ी हैं, जबकि आपको अच्छी गायें दान में देनी चाहिए।' नचिकेता ने विनम्रतापूर्वक कहा।
'क्या तुम मुझसे ज्यादा जानते हो कि कौनसी चीज दान में देनी चाहिए, कौनसी नहीं?' वाजश्रवा ने झल्लाकर प्रश्न किया।

'हां पिताजी।' नचिकेता ने कहा- 'दान में वह वस्तु दी जानी चाहिए, जो व्यक्ति को सबसे ज्यादा प्रिय हो और सबसे प्रिय तो आपको मैं हूं। आप मुझे किसको दान में देंगे?' 
नचिकेता की इस बात का वाजश्रवा ने कोई उत्तर न दिया पर नचिकेता ने हठ पकड़ ली। वह बार-बार यही प्रश्न करता रहा कि पिताजी आप मुझे किसको दान में देंगे?'

काफी देर तक वाजश्रवा देखता रहा, पर जब नचिकेता न माना तो वह झल्लाकर बोला, 'जा, मैंने तुझे यमराज को दान में दिया।' लेकिन अगले ही पल वाजश्रवा ठिठका। ये उसने क्या कह दिया? अपने इकलौते पुत्र को यमराज को दान में दिया? पर अब क्या हो सकता था?

नचिकेता भी ठहरा दृढ़ निश्चयी। वह कहां पीछे रहने वाला था। पिता की बात सुनकर बोल पड़ा- 'मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा पिताजी, आप बिलकुल चिंतित न हों।'

वाजश्रवा ने बहुतेरा समझाया, पर नचिकेता न माना। उसने सभी परिजनों से अंतिम भेंट की और यमराज से मिलने के लिए चल पड़ा। जिसने भी यह सुना आश्चर्यचकित हुए बिना न रह सका। सभी उसके साहस की प्रशंसा करने लगे।
यमपुरी के द्वार पर बैठा नचिकेता बीती बातें सोच रहा था। उसे इस बात का संतोष था कि वह पिता की आज्ञा का पालन कर रहा था। लगातार तीन दिन तक वह यमपुरी के बाहर बैठा यमराज की प्रतीक्षा करता रहा। तीसरे दिन जब यमराज आए तो वे नचिकेता को देखकर चौंके।

जब उन्हें उसके बारे में मालूम हुआ तो वे भी आश्चर्यचकित रह गए। अंत में उन्होंने नचिकेता को अपने कक्ष में बुला भेजा।

यमराज के कक्ष में पहुंचते ही नचिकेता ने उन्हें प्रणाम किया। उस समय उसके चेहरे पर अपूर्व तेज था। उसे देखकर यमराज बोले- 'वत्स, मैं तुम्हारी पितृभक्ति और दृढ़ निश्चय से बहुत प्रसन्न हुआ। तुम मुझसे कोई भी तीन वरदान मांग सकते हो।' 
यह सुनकर नचिकेता की प्रसन्नता की सीमा न रही। वह बोला- 'पहला वरदान तो आप यह दें कि मेरे पिता क्रोध शांत हो जाएं और वे मुझे पहले कि तरह प्यार करें।'

'ऐसा ही होगा।'

बोले- 'दूसरा वरदान मांगो।' किंतु इस बार नचिकेता सोच में पड़ गया। अब वह क्या मांगे। उसे तो किसी चीज की इच्छा ही नहीं।

अचानक उसे ध्यान आया कि मेरे पिता ने यज्ञ स्वर्ग की प्राप्ति के लिए किया था। क्यों न मैं ही उसे मांगूं? यह सोचकर वह बोला- 'मुझे स्वर्ग की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है?'

यमराज चक्कर में पड़ गए, पर वचन दे चुके थे। इसलिए उन्होंने वह भी बता दिया और तीसरा व अंतिम वरदान मांगने के लिए कहा। नचिकेता कुछ समय तक सोच में डूबा रहा।

फिर बोला- 'आत्मा का रहस्य क्या है? कृपया समझाएं।'

नचिकेता के मुख से इस प्रश्न की आशा यमराज को बिलकुल न थी। उन्होंने उसे और कोई वरदान मांगने को कहा और बोले- 'यह विषय इतना गूढ़ है‍ कि हर कोई इसे नहीं समझ सकता।' पर नचिकेता अपनी बात पर अड़ा रहा और निर्णायक स्वर में बोला- 'अगर आपको कुछ देना ही है तो मेरे इस प्रश्न का उत्तर दें अन्यथा रहने दें, क्योंकि मुझे अन्य कोई भी वस्तु नहीं चाहिए।'

वे उसे आशीर्वाद देते हुए बोले- 'वत्स, ये ऐसा रहस्य है जो मैं भी नहीं जानता। पर यदि तुम ज्ञान प्राप्त करो और विद्या अध्ययन करो तो तुम्हें सिर्फ इसी प्रश्न का ही नहीं बल्कि संसार के सभी प्रश्नों का उत्तर प्राप्त हो सकता है, क्योंकि विद्या वह खजाना है जिसकी बराबरी संसार की कोई दूसरी वस्तु नहीं कर सकती।'

उसके बाद यमराज ने नचिकेता को आशीर्वाद देकर उसे उसके पिता के पास वापस भेज दिया।

वहां से लौटने के बाद नचिकेता अध्ययन में लग गया, क्योंकि जीवन की सही राह उसे प्राप्त हो चुकी थी। उसी राह पर चलकर वह एक बहुत बड़ा विद्वान बना और सारे संसार में उसका नाम अमर हो गया
  

  

संत पुंडलिक की मातृ-पितृ भक्ति

संत पुंडलिक माता-पिता के परम भक्त थे। एक दिन पुंडलिक अपने माता-पिता के पैर दबा रहे थे कि श्रीकृष्ण रुक्मिणी के साथ वहां प्रकट हो गए, लेकिन पुंडलिक पैर दबाने में इतने लीन थे कि उनका अपने इष्टदेव की ओर ध्यान ही नहीं गया।

तब प्रभु ने ही स्नेह से पुकारा, 'पुंडलिक, हम तुम्हारा आतिथ्य ग्रहण करने आए हैं।'

पुंडलिक ने जब उस तरफ दृष्टि फेरी, तो रुक्मिणी समेत सुदर्शन चक्रधारी को मुस्कुराता पाया।

उन्होंने पास ही पड़ी ईंटें फेंककर कहा, 'भगवन! कृपया इन पर खड़े रहकर प्रतीक्षा कीजिए। पिताजी शयन कर रहे हैं, उनकी निद्रा में मैं बाधा नहीं लाना चाहता। कुछ ही देर में मैं आपके पास आ रहा हूं।' वे पुनः पैर दबाने में लीन हो गए। 
पुंडलिक की सेवा और शुद्ध भाव देख भगवान इतने प्रसन्न हो गए कि कमर पर दोनों हाथ धरे तथा पांवों को जोड़कर वे ईंटों पर खड़े हो गए। किंतु उनके माता-पिता को निद्रा आ ही नहीं रही थी। उन्होंने तुरंत आंखें खोल दीं। पुंडलिक ने जब यह देखा तो भगवान से कह दिया, 'आप दोनों ऐसे ही खड़े रहे' और वे पुनः पैर दबाने में मग्न हो गए।

भगवान ने सोचा कि जब पुंडलिक ने बड़े प्रेम से उनकी इस प्रकार व्यवस्था की है, तो इस स्थान को क्यों त्यागा जाए? और उन्होंने वहां से न हटने का निश्चय किया।

पुंडलिक माता-पिता के साथ उसी दिन भगवत्‌धाम चले गए, किंतु श्रीविग्रह के रूप में ईंट पर खड़े होने के कारण भगवान 'विट्ठल' कहलाए और जिस स्थान पर उन्होंने अपने भक्त को दर्शन दिए थे, वह 'पुंडलिकपुर' कहलाया। इसी का अपभ्रंश वर्तमान में प्रचलित 'पंढरपुर' है।

महाराष्ट्र में विट्ठल को विठोबा भी कहा जाता और पंढरी, पंढरीनाथ, पाण्डुरंग, विट्ठल, विट्ठलनाथ आदि नामों से भी बुलाया जाता है।
 

सीता नवमी की पौराणिक कथा

सीता नवमी की पौराणिक कथा के अनुसार मारवाड़ क्षेत्र में एक वेदवादी श्रेष्ठ धर्मधुरीण ब्राह्मण निवास करते थे। उनका नाम देवदत्त था। उन ब्राह्मण की बड़ी सुंदर रूपगर्विता पत्नी थी, उसका नाम शोभना था। ब्राह्मण देवता जीविका के लिए अपने ग्राम से अन्य किसी ग्राम में भिक्षाटन के लिए गए हुए थे। इधर ब्राह्मणी कुसंगत में फंसकर व्यभिचार में प्रवृत्त हो गई।

अब तो पूरे गांव में उसके इस निंदित कर्म की चर्चाएं होने लगीं। परंतु उस दुष्टा ने गांव ही जलवा दिया। दुष्कर्मों में रत रहने वाली वह दुर्बुद्धि मरी तो उसका अगला जन्म चांडाल के घर में हुआ। पति का त्याग करने से वह चांडालिनी बनी, ग्राम जलाने से उसे भीषण कुष्ठ हो गया तथा व्यभिचार-कर्म के कारण वह अंधी भी हो गई। अपने कर्म का फल उसे भोगना ही था।
 
इस प्रकार वह अपने कर्म के योग से दिनों दिन दारुण दुख प्राप्त करती हुई देश-देशांतर में भटकने लगी। एक बार दैवयोग से वह भटकती हुई कौशलपुरी पहुंच गई। संयोगवश उस दिन वैशाख मास, शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि थी, जो समस्त पापों का नाश करने में समर्थ है।
 
सीता (जानकी) नवमी के पावन उत्सव पर भूख-प्यास से व्याकुल वह दुखियारी इस प्रकार प्रार्थना करने लगी- हे सज्जनों! मुझ पर कृपा कर कुछ भोजन सामग्री प्रदान करो। मैं भूख से मर रही हूं- ऐसा कहती हुई वह स्त्री श्री कनक भवन के सामने बने एक हजार पुष्प मंडित स्तंभों से गुजरती हुई उसमें प्रविष्ट हुई। उसने पुनः पुकार लगाई- भैया! कोई तो मेरी मदद करो- कुछ भोजन दे दो।
 
इतने में एक भक्त ने उससे कहा- देवी! आज तो सीता नवमी है, भोजन में अन्न देने वाले को पाप लगता है, इसीलिए आज तो अन्न नहीं मिलेगा। कल पारणा करने के समय आना, ठाकुर जी का प्रसाद भरपेट मिलेगा, किंतु वह नहीं मानी। अधिक कहने पर भक्त ने उसे तुलसी एवं जल प्रदान किया। वह पापिनी भूख से मर गई। किंतु इसी बहाने अनजाने में उससे सीता नवमी का व्रत पूरा हो गया।
 
अब तो परम कृपालिनी ने उसे समस्त पापों से मुक्त कर दिया। इस व्रत के प्रभाव से वह पापिनी निर्मल होकर स्वर्ग में आनंदपूर्वक अनंत वर्षों तक रही। तत्पश्चात् वह कामरूप देश के महाराज जयसिंह की महारानी काम कला के नाम से विख्यात हुई। जातिस्मरा उस महान साध्वी ने अपने राज्य में अनेक देवालय बनवाए, जिनमें जानकी-रघुनाथ की प्रतिष्ठा करवाई। इस दिन जानकी स्तोत्र, रामचंद्रष्टाकम्, रामचरित मानस आदि का पाठ करने से मनुष्य के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। 
 
अत: सीता नवमी पर जो श्रद्धालु माता जानकी का पूजन-अर्चन करते है, उन्हें सभी प्रकार के सुख-सौभाग्य प्राप्त होते हैं। 

Wednesday 22 April 2015

करवा चौथ की पौराणिक लोककथा

भारत त्योहारों का देश है। करवा चौथ के व्रत संबंध में कई लोककथाएं प्रचलित हैं। एक बार पांडु पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी नामक पर्वत पर गए। इधर द्रोपदी बहुत परेशान थीं। उनकी कोई खबर न मिलने पर उन्होंने कृष्ण भगवान का ध्यान किया और अपनी चिंता व्यक्त की। 
 
कृष्ण भगवान ने कहा - बहना, इसी तरह का प्रश्न एक बार माता पार्वती ने शंकरजी से किया था। तब शंकरजी ने माता पार्वती को करवा चौथ का व्रत बतलाया। इस व्रत को करने से स्त्रियां अपने सुहाग की रक्षा हर आने वाले संकट से वैसे ही कर सकती हैं जैसे एक ब्राह्मण ने की थी। 
 प्राचीन काल में एक ब्राह्मण था। उसके चार लड़के एवं एक गुणवती लड़की थी। एक बार लड़की मायके में थी, तब करवा चौथ का व्रत पड़ा। उसने व्रत को विधिपूर्वक किया। पूरे दिन निर्जला रही। कुछ खाया-पीया नहीं, पर उसके चारों भाई परेशान थे कि बहन को प्यास लगी होगी, भूख लगी होगी, पर बहन चंद्रोदय के बाद ही जल ग्रहण करेगी। भाइयों से रहा नहीं गया, उन्होंने शाम होते ही बहन को बनावटी चंद्रोदय दिखा दिया। 
 एक भाई पीपल की पेड़ पर छलनी लेकर चढ़ गया और दीपक जलाकर छलनी से रोशनी उत्पन्न कर दी। तभी दूसरे भाई ने नीचे से बहन को आवाज दी - देखो बहन, चंद्रमा निकल आया है, पूजन कर भोजन ग्रहण करो। बहन ने भोजन ग्रहण किया। भोजन ग्रहण करते ही उसके पति की मृत्यु हो गई। 
 अब वह दुखी हो विलाप करने लगी, तभी वहां से रानी इंद्राणी निकल रही थीं। उनसे उसका दुख न देखा गया। ब्राह्मण कन्या ने उनके पैर पकड़ लिए और अपने दुख का कारण पूछा, तब इंद्राणी ने बताया- तूने बिना चंद्र दर्शन किए करवा चौथ का व्रत तोड़ दिया इसलिए यह कष्ट मिला। अब तू वर्ष भर की चौथ का व्रत नियमपूर्वक करना तो तेरा पति जीवित हो जाएगा। 
 उसने इंद्राणी के कहे अनुसार चौथ व्रत किया तो पुनः सौभाग्यवती हो गई। इसलिए प्रत्येक स्त्री को अपने पति की दीर्घायु के लिए यह व्रत करना चाहिए। 
 द्रोपदी ने यह व्रत किया और अर्जुन सकुशल मनोवांछित फल प्राप्त कर वापस लौट आए। तभी से अपने अखंड सुहाग के लिए हिन्दू महिलाएं करवा चौथ व्रत करती हैं।

माघ स्नान की पौराणिक कथा

स्कंदपुराण के रेवाखंड में माघ स्नान की कथा के उल्लेख में आया है कि प्राचीन काल में नर्मदा तट पर शुभव्रत नामक ब्राह्मण निवास करते थे। वे सभी वेद शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता थे। किंतु उनका स्वभाव धन संग्रह करने का अधिक था।
 
उन्होंने धन तो बहुत एकत्रित किया। वृद्घावस्था के दौरान उन्हें अनेक रोगों ने घेर लिया। तब उन्हें ज्ञान हुआ कि मैंने पूरा जीवन धन कमाने में लगा दिया अब परलोक सुधारना चाहिए। वह परलोक सुधारने के लिए चिंतातुर हो गए।
अचानक उन्हें एक श्लोक याद आया जिसमें माघ मास के स्नान की विशेषता बताई गई थी। उन्होंने माघ स्नान का संकल्प लिया और 'माघे निमग्ना: सलिले सुशीते विमुक्तपापास्त्रिदिवं प्रयान्ति।।' इसी श्लोक के आधार पर नर्मदा में स्नान करने लगे। नौ दिनों तक प्रात: नर्मदा में जल स्नान किया और दसवें दिन स्नान के बाद उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। 
शुभव्रत ने जीवन भर कोई अच्छा कार्य नहीं किया था लेकिन माघ मास में स्नान करके पश्चाताप करने से उनका मन निर्मल हो गया। माघ मास के स्नान करने से उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हुई।