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Friday 17 April 2015

जीवन कशमकश में डूबा लग रहा है तो अपनाएं शून्य से आगे बढ़ने का मार्ग

महाराज कमलबीर जी फरमाते हैं कि हम सारी उम्र इसी भ्रम में निकाल देते हैं कि परमात्मा हम से अलग है। इसी वजह से हम द्वैत में उलझ जाते हैं और दुनिया रूपी दिखावटी सत्य में फंस कर उसे बाहर खोजते फिर रहे हैं जबकि वास्तविक सत्य यह है कि सृष्टि में सर्वत्र वह परमात्मा ही है। इस सृष्टि में विचरने के लिए उसने इंसान व दूसरे रूप धारण किए हुए हैं क्योंकि वह नूर है, निराकार है, सर्वव्यापक है, इसलिए उसे जहान में विचरने के लिए शरीर और मन रूपी दो यंत्रों का सहारा लेना पड़ा। अब इस शरीर में मन भी है, परमात्मा भी है। 
मन में मैं (अहंकार) के इसी आवरण के साथ ही हम अपनी पहचान दुनिया को देते हैं और दुनिया में अपना स्थान बनाते हैं। इस मैं (अहंकार) के आधार पर दुनिया में बनाए गए संबंध व स्थान दिखावटी सत्य के साथ चलते हुए हम अपने शरीर के भीतर बस रहे वास्तविक सत्य-परम पिता परमात्मा से कोसों दूर चले जाते हैं।
जिस परम पिता परमात्मा  के लिए यह शरीर और मन है, हम सारी उम्र उसे ही भूले रहते हैं और सारा जीवन इसी भ्रम में निकाल देते हैं कि परमात्मा हमसे अलग है। हमेशा इस बात को ध्यान में रखो कि तुम वही परमात्मा का रूप आत्मा हो बल्कि मैं तो कहूंगा परमात्मा ही हो, जिसने यह शरीर व मन धारण किए हुए हैं। सच्चाई तो यह है कि परमात्मा सर्वव्यापक है, नूर है और वही सारी सृष्टि को चला रहा है। जब हमारे भीतर यह समझ उतर जाती है कि मैं (शरीर) नहीं हूं तो हमारा संबंध चेतनता के साथ हो जाता है। जब हम अपनी चेतनता के साथ जुड़ते हैं तो हमारा देहाभ्यास छूटने लगता है। फिर हमारी हालत ऐसी हो जाती है कि हमारे अंदर से यही आवाज आती है- तुम मेरे पास होते हो, कोई दूसरा नहीं होता।
जैसे-जैसे हम चेतनता से जुड़ते हैं, हमारा होश जागने लगता है, विवेक जागने लगता है फिर हमें यह समझ भी आने लगती है, कि हमारे जीवन में प्रकट होने वाले गम, भय, चिंता आदि तो कुछ भी नहीं थे, ये सब तो हमारे मन की कल्पना थी। हमारे जीवन में जो खुशी प्रकट हुई, वह भी नकली थी, और जो गम आया, वह भी नकली था। अपने आत्म-केंद्र में स्थित होकर ही परम पिता परमात्मा की विशालता का एहसास होता है।

यही विराट रूप भगवान कृष्ण ने अर्जुन को दिखलाया। अब प्रश्र यह पैदा होता है कि हम चेतनता से जुड़ें कैसे? इसके लिए सबसे पहले अपने शरीर को शांत करें, फिर मन में उठने वाले विचारों को शांत करें। इसके लिए हमें कुछ ज्यादा नहीं करना बल्कि शरीर व मन दोनों से ही अपना ध्यान हटा लेना है। अर्थात् अपनी सुरती बाहर से मोड़ कर अपने अंदर लेकर जानी है। भीतर क्या मिलेगा-शून्य, शून्य से ही हम शांति की ओर आगे बढ़ते हैं। 

संजीवनी विद्या से पाएं अपने जीवन की सभी जिज्ञासाओं का समाधान

महाभारत एक धर्मयुद्ध ही नहीं कर्तव्यगाथा भी है। इसमें गीता का ज्ञान मोह एवं अज्ञान से ग्रस्त मानव को जीवन में कर्तव्य की सर्वोच्चता का बोध करवाता है। समाज एवं देश की उन्नति के लिए सभी को अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन करना चाहिए।
आज से लगभग 5 हजार वर्ष पूर्व मार्गशीर्ष माह की शुक्ल एकादशी को महाभारत युद्ध में कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि पर अर्जुन ने हथियार डाल दिए थे और श्री कृष्ण से कहा था कि प्रभु मेरे सामने सभी भाई-बंधु, गुरु आदि खड़े हैं और मैं इन पर वार नहीं कर सकता। मैं युद्ध से हट रहा हूं। 
अर्जुन के इस तरह कर्म से विमुख होकर मोह में बंधने को श्रीकृष्ण ने अनुचित ठहराया। अर्जुन युद्ध के लिए तैयार हो जाए व सत्य को जान जाए, इस अभिप्राय से श्री कृष्ण ने उन्हें कुछ उपदेश दिया था। यही उपदेश गीता है। 
गीता के जीवन-दर्शन के अनुसार मनुष्य महान है, अमर है, असीम शक्ति का भंडार है। गीता को संजीवनी विद्या की संज्ञा भी दी गई है। मनुष्य का कर्तव्य क्या है? इसी का बोध कराना गीता का परम लक्ष्य है।
श्री कृष्ण के इस उपदेश के बाद ही अर्जुन अपना कर्तव्य पहचान पाए थे, फलस्वरूप उन्होंने युद्ध किया, सत्य की असत्य पर जीत हुई और कर्म की विजय हुई। गीता में कुल 18 अध्याय हैं और महाभारत का युद्ध भी 18 दिन ही चला था। गीता में कुल 700 श्लोक हैं। गीता में ज्ञान को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। ज्ञान की प्राप्ति से ही मनुष्य की सभी जिज्ञासाओं का समाधान होता है, इसीलिए गीता को सर्वशास्त्रमयी भी कहा गया है।
श्री कृष्ण ने अर्जुन ही नहीं मनुष्य मात्र को यह उपदेश दिया है कि कर्म करो और फल की चिंता मत करो। फल की इच्छा रखते हुए भी कोई काम मत करो।

भगवान गुरु गोरक्षनाथ: देवी-देवताओं के रक्षक

भगवान गुरु गोरक्षनाथ जी को नाथशिरोमणि, नाथ पंथ के संस्थापक और नाथ पंथ के प्रथम गुरु के स्वरुप में सम्पूर्ण विश्व में जाना जाता है। गोरक्ष नाम का अर्थ है गौ रक्षक अर्थात जिनका जन्म किसी स्त्री के गर्भ से नहीं हुआ जो स्वयं ही गौशाला में प्रकट हुए। गोरक्ष अर्थात जो गौ के रक्षक हैं। गौ में हिन्दू मान्यता के अनुसार तेतीस कोटि देवी-देवताओं का निवास है। इस आधार पर भगवान गुरु गोरक्षनाथ जी को तेतीस कोटि देवी-देवताओं का रक्षक भी माना जाता है।
भगवान गुरु गोरक्षनाथ के जन्म से जुड़ी अनेकों कथाएं हैं किन्तु जन्म उसका होता है जो स्त्री के गर्भ से संसार में आए। उदहारण के तौर पर भगवान राम और भगवान कृष्ण भगवान गुरु गोरक्षनाथ साक्षात पृथ्वी पर प्रकट हुए 12 वर्ष के बालयोगी के स्वरुप में। भगवान शिव पृथ्वी पर अवतार नहीं लेते। भगवान शिव को साक्षात धर्म का प्रतीक माना गया है। धर्म की रक्षा और स्थापना के लिए भगवान विष्णु पृथ्वी पर अवतार लेते हैं। भगवान शिव के स्थापित 12 ज्योतिर्लिंगों में भगवान शिव ने स्वयं प्रकट होकर अपने भक्तों को आशीर्वाद दिया और 12 ज्योति के स्वरुप में सदा पृथ्वी पर उनका निवास है।
एक सरोवर के किनारे भगवान शिव माता उमा को योग की शिक्षा दे रहे थे। माता उमा को निद्रा ने अपने आवेश में ले लिया और उमा सो गई। सरोवर में एक मछली के गर्भ में एक बालक पल रहा था जिसने वह सारा ज्ञान जो भगवान शिव माता उमा को दे रहे थे सुन लिया। भगवान शिव ने देखा उमा तो निद्रा में हैं तो कौन है वो जो सम्पूर्ण ज्ञान को ग्रहण कर चूका है और जो हमारे पूछने पर "हां" में उत्तर दे रहा है।भगवान शिव ने अपनी त्रिकाल दृष्टि से देखा की एक मछली के गर्भ में एक बालक है जो अब ब्रह्म ज्ञानी बन गया है। भगवान शिव की कृपा से वह बालक मछली के गर्भ से मुक्त हुआ और भगवान शिव ने उसको अपने शिष्य के स्वरुप में स्थान दिया। वही बालक नाथ पंथ में गुरु मछिंदरनाथ जी के नाम से प्रख्यात हुआ।
भगवान शिव ने अपने शिष्य मछिंदरनाथ को आदेश दिया की जिस योग विद्या को उन्होंने ग्रहण किया है उसको संसार में बाटें।  गुरु मछिंदरनाथ जब संसार में गए उन्होंने वहां पाप को सर्वाधिक पाया।  हर प्राणी का मन काम, क्रोध, लोभ, मोह, तामस और अभिमान में आसक्त था। गुरु मछिंदरनाथ ने अपने गुरु भगवान शिव को पुकारा और कहा आपने जो मुझको कार्य दिया मैं उसको करने में असमर्थ हूं। भगवान शिव ने अपने शिष्य के प्रेम को देखते हुए स्वयं पृथ्वी पर जाने का निश्चय किया।
गुरु मछिंदरनाथ योगी के रूप में गांव-गांव भ्रमण करने लगे। एक दिन वो एक स्थान पर पहुंचे जहां उन्होंने चमत्कार दिखाए। गांव में निवास करने वाली एक स्त्री  को संतान प्राप्ति की इच्छा योगी मछिंदरनाथ तक ले आई। गुरु मछिंदरनाथ ने स्त्री को विभूति दी और पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया। स्त्री जब अपने घर पहुंची तो उसके पति ने कहा क्यों इन बाबा लोगों पर विश्वास करती हो और विभूति को गौशाला में फेंक दिया। स्त्री को बड़ा ही दु:ख हुआ। 12 वर्ष के पश्चात् गुरु मछिंदरनाथ उस गांव में आए  वह स्त्री भी गुरु मछिंदरनाथ से मिलने आई। गुरु मछिंदरनाथ ने उस स्त्री को पहचान लिया और पुछा कैसा है, "तुम्हारा पुत्र !" 
स्त्री ने अपनी दुखत घटना को गुरु मछिंदरनाथ जी को बताया।
गुरु मछिंदरनाथ बोले, "हमको उस गौशाला की ओर ले जाओ जहां विभूति को फेंक था।  गुरु मछिंदरनाथ उस स्त्री और गांव के अन्य लोगों के साथ उस स्थान पर पहुंचे जहां वो गौशाला थी।"
गुरु मछिंदरनाथ बोले, "अलख निरंजन" ! 
गौशाला से आवाज़ आई, "आदेश गुरु का" !
एक 12 वर्ष का बालक वहां पर प्रकट हुआ। गुरु मछिंदरनाथ जी ने कहा क्यों की यह बालक गौशाला से प्रकट हुआ है और 12 वर्ष तक स्वयं गौ माता ने इसकी रक्षा और पालन पोषण किया है इसलिए इस बालक का नाम "गोरक्ष" रखता हूं। यही बालक गुरु मछिंदरनाथ जी के प्रथम शिष्य के स्वरुप में सम्पूर्ण विश्व में विख्यात होगा।
स्त्री रोने लगी और बोली, "मेरा पुत्र मुझको दे दो।"
गुरु मछिंदरनाथ बोले,"पुत्र वह होता जो तुम्हारे गर्भ से जन्म लेता। यह तो अजन्मा हैं। यह तो स्वयं भगवान शिव हैं जिन्होंने मेरे प्रेम को स्वीकार किया और योग के प्रचार के लिए स्वयं ही मेरे शिष्य के स्वरुप में प्रकट हुए हैं।"
जिस जगह पर भगवान गुरु गोरक्षनाथ प्रकट हुए उस स्थान को भारत देश में गोरखपुर के नाम से जाना जाता है तत्पश्चात भगवान गुरु गोरक्षनाथ जी ने अपने गुरु मछिंदरनाथ जी के साथ नाथ पंथ की स्थापन की। किस युग में और किस काल में भगवान गुरु गोरक्षनाथ जी ने नाथ पंथ की स्थापना करी आज तक कोई भी नहीं जान पाया।
इसका कारण यह भी हो सकता है की भगवान गुरु गोरक्षनाथ कोई अवतार नहीं स्वयं भगवन शिव हैं जो अपने शिष्य मछिंदरनाथ की मदद: नाथ पंथ के निर्माण करने के लिए ही आए इसलिए उनकी माता कौन हैं और पिता कौन हैं आज तक कोई जान नहीं पाया। नाथ पंथ में नवनाथ और चौरासी महासिद्धों का निर्माण भगवान गुरु गोरक्षनाथ जी ने ही किया।
लोगों का यह भी मानना हैं की भगवान गुरु गोरक्षनाथ 11विं शताब्दी के योगी हैं ! राजा भर्तहरि जो पहली शताब्दी में उज्जैन नगरी के राजा थे भगवान गुरु गोरक्षनाथ जी के शिष्य बने। उसी प्रकार बप्पा रावल जिन्होंने 8विं शताब्दी में राजस्थान की लड़ाई लड़ी वह भी भगवान गुरु गोरक्षनाथ जी के शिष्य थे। ऐसे कितने ही उल्लेख इतिहास में मिलते हैं जो यह बताते हैं भगवान गुरु गोरक्षनाथ 11विं शताब्दी के योगी नहीं हैं और यह धारणा पूर्ण रूप से गलत हैं। आदि गुरु शंकराचार्य की लिपियों में भी भगवान गुरु गोरक्षनाथ जी का उल्लेख मिलता है। 
भगवान वेद व्यास जिन्होंने द्वापर युग में 18 पुराणों को लिखा उन्होंने भी स्कन्द पुराण, ब्रह्म पुराण और शिव पुराण में भगवान गुरु गोरक्षनाथ का उल्लेख किया है। कितने ही राजा, योगी, साधु, संत भगवान गुरु गोरक्षनाथ के भक्त और शिष्य थे। मृत्यु जीवन का अटल सत्य है। जो संसार मेँ आया है उसको एक दिन जाना ही है।जिसने जन्म लिया वो एक दिन निश्चित स्वरुप से अपने शरीर का त्याग करेगा।भगवान गुरु गोरक्षनाथ जिन्होंने स्त्री के गर्भ से जन्म नहीं लिया और साक्षात शिव हैं सदा इस पृथ्वी पर एक महायोगी के स्वरुप में निवास करते हैं।

मुख्य रूप से भगवान गुरु गोरक्षनाथ जी को दो कार्यों के लिए जाना जाता है। भगवान गुरु गोरक्षनाथ जी ने नाथ पंथ की स्थापना की और हठ योग का निर्माण किया। भगवान गुरु गोरक्षनाथ द्वारा लिखी गई दो पुस्तकें भी प्रचलित हैं। गोरख बानी और सिद्ध सिद्धांत पद्धति वह दो पुस्तकें हैं जो हर नाथ पंथ से जुड़ा व्यक्ति पढऩे की इच्छा रखता है। इसके अतिरिक्त भगवान गुरु गोरक्षनाथ जी ने शाबर तंत्र का भी निर्माण किया जन जन की मदद करने के लिए। सभी तंत्रों का आधार भी भगवान शिव ही माने गए हैं।

ऐतिहासिक कहानी से जानें, खोए संस्कारों को वापिस पाने का मार्ग

 जो जैसा अन्न खाता है, उसका मन भी वैसा हो जाता है
महाभारत का युद्ध चल रहा था।  भीष्म पितामह अर्जुन के बाणों से घायल हो बाणों से ही बनी हुई एक शय्या पर पड़े हुए थे। कौरव और पांडव दल के लोग प्रतिदिन उनसे मिलना जाया करते थे।
एक दिन का प्रसंग है कि पांचों भाई और द्रौपदी चारों तरफ बैठे थे और पितामह उन्हें उपदेश दे रहे थे। सभी श्रद्धापूर्वक उनके उपदेशों को सुन रहे थे कि अचानक द्रौपदी खिलखिलाकर हंस पड़ी। पितामह इस हरकत से बहुत आहत हो गए और उपदेश देना बंद कर दिया। पांचों पांडव भी द्रौपदी के इस व्यवहार से आश्चर्यचकित थे। सभी बिल्कुल शांत हो गए। कुछ क्षणोपरांत पितामह बोले, ‘‘पुत्री, तुम एक सम्भ्रांत कुल की बहू हो, क्या मैं तुम्हारी इस हंसी का कारण जान सकता हूं?’’
द्रौपदी बोली, ‘‘पितामह, आज आप हमें अन्याय के विरुद्ध लडऩे का उपदेश दे रहे हैं लेकिन जब भरी सभा में मुझे निर्वस्त्र करने की कुचेष्टा की जा रही थी तब कहां चला गया था आपका यह उपदेश, आखिर तब आपने भी मौन क्यों धारण कर लिया था?
यह सुन पितामह की आंखों से आंसू आ गए। कातर स्वर में उन्होंने कहा, ‘‘पुत्री, तुम तो जानती हो कि मैं उस समय दुर्योधन का अन्न खा रहा था। वह अन्न प्रजा को दुखी कर एकत्र किया गया था, ऐसे अन्न को भोगने से मेरे संस्कार भी क्षीण पड़ गए थे, फलत: उस समय मेरी वाणी अवरुद्ध हो गई थी और अब जबकि उस अन्न से बना लहू बह चुका है, मेरे स्वाभाविक संस्कार वापस आ गए हैं और स्वत: ही मेरे मुख से उपदेश निकल रहे हैं। बेटी, जो जैसा अन्न खाता है उसका मन भी वैसा ही हो जाता है।’’

मात्र हनुमान जी का ध्यान दुखों का काम करे तमाम

एक बार की बात है माता अंजना हनुमान जी को कुटी में लिटा कर कहीं बाहर चली गईं। थोड़ी देर में इन्हें बहुत तेज भूख लगी। इतने में आकाश में सूर्य भगवान उगते हुए दिखलाई दिए। इन्होंने समझा यह कोई लाल-लाल सुंदर मीठा फल है। बस, एक ही छलांग में यह सूर्य भगवान के पास जा पहुंचे और उन्हें पकड़ कर मुंह में रख लिया।
सूर्य-ग्रहण का दिन था। सूर्य को ग्रसने के लिए राहू उनके पास पहुंच रहा था। उसे देख कर हनुमान जी ने सोचा यह कोई काला फल है इसलिए उसकी ओर भी झपटे। राहू किसी तरह भाग कर देवराज इंद्र के पास पहुंचा और उसने कांपते हुए स्वरों में इंद्रदेव से कहा, ‘‘भगवान! आज आपने यह कौन-सा दूसरा राहू सूर्य को ग्रसने के लिए भेज दिया है? यदि मैं भागा न होता तो वह मुझे भी खा गया होता।’’
राहू की बातें सुन कर भगवान इंद्र को बड़ा अचंभा हुआ। वह अपने सफेद ऐरावत हाथी पर सवार हो हाथ में वज्र ले बाहर निकले। उन्होंने देखा कि एक वानर-बालक सूर्य को मुंह में दबाए आकाश में खेल रहा है। हनुमान ने भी सफेद ऐरावत पर सवार इंद्र को देखा। उन्होंने समझा कि यह भी कोई खाने लायक सफेद फल है। वह उधर भी झपट पड़े।
यह देख कर देवराज इंद्र बहुत ही क्रोधित हो उठे। अपनी ओर झपटते हुए हनुमान से उन्होंने अपने को बचाया तथा सूर्य को छुड़ाने के लिए हनुमान की ठुड्डी (हनु) पर वज्र का तेज प्रहार किया। वज्र के उस प्रहार से हनुमान जी का मुंह खुल गया और वह बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।
हनुमान जी के गिरते ही उनके पिता वायु देवता वहां पहुंच गए। अपने बेहोश बालक को उठाकर उन्होंने छाती से लगा लिया। माता अंजना भी वहां दौड़ी हुई आ पहुंचीं। हनुमान को बेहोश देख कर वह रोने लगीं। वायु देवता ने क्रोध में आकर बहना ही बंद कर दिया। हवा के रुक जाने के कारण तीनों लोकों के सभी प्राणी व्याकुल हो उठे। पशु पक्षी बेहोश हो-होकर गिरने लगे। पेड़-पौधे और फसलें कुम्हलाने लगीं। ब्रह्मा जी इंद्र सहित सारे देवताओं को लेकर वायु देवता के पास पहुंचे।
उन्होंने अपने हाथों से छूकर हनुमान जी को जीवित करते हुए वायु देवता से कहा, ‘‘वायु देवता! आप तुरन्त बहना शुरू करें। वायु के बिना हम सब लोगों के प्राण संकट में पड़ गए हैं। यदि आपने बहने में जरा भी देर की तो तीनों लोकों के प्राणी मौत के मुंह में चले जाएंगे। आपके इस बालक को आज सभी देवताओं की ओर से वरदान प्राप्त होगा।’’
ब्रह्मा जी की बात सुन कर सभी देवताओं ने कहा, ‘‘आज से इस बालक पर किसी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।’’
इंद्र ने कहा, ‘‘मेरे वज्र का प्रभाव भी अब इस पर नहीं पड़ेगा। इसकी हनु (ठुड्डी) वज्र से टूट गई थी इसलिए इसका नाम आज से हनुमान होगा।’’
ब्रह्मा जी ने  कहा, ‘‘वायुदेव! तुम्हारा यह पुत्र बल, बुद्धि, विद्या में सबसे बढ़-चढ़ कर होगा। तीनों लोकों में किसी भी बात में इसकी बराबरी करने वाला दूसरा कोई न होगा। यह भगवान राम का सबसे बड़ा भक्त होगा। इसका ध्यान करते ही सबके सभी प्रकार के दुख दूर हो जाएंगे। यह मेरे ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से सर्वथा मुक्त होगा।’’ 
वरदान से प्रसन्न होकर और ब्रह्मा जी एवं देवताओं की प्रार्थना सुन कर वायुदेव ने फिर पहले की तरह बहना शुरू कर दिया। तीनों लोकों के प्राणी प्रसन्न हो उठे।

जो रक्षा करे, वही राजा कहलाता है

जो असहाय की रक्षा नहीं करता, वह पाप का भागी बनता है : कृष्ण विज
जो असहाय की रक्षा नहीं करता, वह पाप का भागी बनता है। जो रक्षा करे, वही राजा कहलाता है। उक्त शब्द श्री रामशरणम् आश्रम द्वारा श्री रामनवमी शोभायात्रा के उपलक्ष्य में आयोजित रामायण ज्ञान यज्ञ के दौरान श्री कृष्ण विज ने अपने प्रवचनों में कहे। 
उन्होंने कहा कि जब प्रभु श्री राम शरभंग ऋषि के आश्रम में पहुंचते हैं तो शरभंग ऋषि उनके दर्शन कर अपने प्राण त्याग देते हैं और ऋषि-मुनियों की सुरक्षा प्रभु श्री राम पर आ जाती है। इसके पश्चात सभी ऋषि-मुनि राम के पास आते हैं तथा प्रभु राम को असुरों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के बारे में बताते हैं। इसी बीच प्रभु श्री राम की मुलाकात सुतीक्ष्ण ऋषि से हुई। सुतीक्ष्ण ऋषि भी उन्हें जंगल में असुरों द्वारा किए जा रहे भीषण अत्याचारों के बारे में बताते हैं तथा इधर-उधर बिखरी हुई हड्डियों को दिखाते हैं। तब श्री राम उन्हें रक्षा का वचन देते हैं। 
कथा प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए श्री कृष्ण विज ने कहा कि श्री राम जी ऋषि-मुनियों की रक्षा के लिए तैयार हो जाते हैं तो सीता के मन में डर पैदा हो जाता है। श्री राम के पूछने पर सीता जी बताती हैं कि जब क्षत्रिय के हाथ में हथियार आता है तो उसमें 3 दोष उपजते हैं-पहला पर स्त्री गमन, दूसार मिथ्या भाषण व तीसरा अकारण हिंसा करना। 

सीता माता ने कहा कि इन तीनों में से एक ही बात से डर लगता है, वह अकारण हिंसा है जिसे आप न कर बैठें। तब श्री राम उन्हें बताते हैं कि मेरा कार्य रक्षा करना है, मैं रक्षा ही करूंगा। कथा प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए श्री कृष्ण विज ने कहा कि 10 वर्ष सुतीक्ष्मण ऋषि के पास रहने के पश्चात श्री राम जी की मुलाकात अगस्त्य मुनि से हुई। कथा का विश्राम ‘सर्वशक्तिमते परमात्मने श्री रामाय नम:’ से हुआ। 

Wednesday 15 April 2015

जब भगवान शिव सजे अपने पिया के लिए..

कामदेव ने जब भगवान शिव का ध्यान भंग कर दिया तो उसे खुद पर बहुत गर्व होने लगा। वह भगवान कृष्ण के पास जाकर बोला कि मैं आपसे भी मुकाबला करना चाहता हूं। भगवान ने उसे स्वीकृति दे दी लेकिन कामदेव ने इस मुकाबले के लिए भगवान के सामने एक शर्त भी रख दी। कामदेव ने कहा कि इसके लिए आपको अश्विन मास की पूर्णिमा को वृंदावन के रमणीय जंगलों में स्वर्ग की अप्सराओं-सी सुंदर गोपियों के साथ आना होगा। कृष्ण ने यह भी मान लिया। फिर जब तय शरद पूर्णिमा की रात आई, भगवान कृष्ण ने अपनी बांसुरी बजाई।
बांसुरी की सुरीली तान सुनकर गोपियां अपनी सुध खो बैठीं। कृष्ण ने उनके मन मोह लिए। उनके मन में काम का भाव जागा लेकिन यह काम कोई वासना नहीं थी। यह तो गोपियों के मन में भगवान को पाने की इच्छा थी। आमतौर पर काम, क्रोध, मद, मोह और भय अच्छे भाव नहीं माने जाते हैं लेकिन जिसका मन भगवान ने चुरा लिया हो तो ये भाव उसके लिए कल्याणकारी हो जाते हैं। 
भगवान शिव कैलाश पर्वत पर अपनी समाधी त्याग कर वृंदावन आ गए। गोपियों ने उन्हें वहीं रोक दिया और कहां यहां भगवान कृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी पुरूष को आने की अनुमति नहीं है। फिर क्या था भगवान शिव अर्धनारिश्वर से पूर्ण नारी रूप में अपने पिया के लिए सज धज कर मानसरोवर में स्नान कर गोपी का रूप बना कर आ गए। 
प्रवेश द्वार पर ललिता जी खड़ी थी वह सभी गोपियों के कान में युगल मंत्र का उपदेश दे रही थी। उनकी आज्ञा के बिना किसी को भी रास में आने की अनुमती नहीं है। भोलेबाबा भी गोपी बनकर रास में प्रवेश कर गए। भगवान कृष्ण उन्हें गोपी रूप में देख कर बहुत प्रसन्न हुए। तभी से उनका नाम गोपेश्वर महादेव हुआ। 
गोपी का अर्थ है जो भगवान कृष्ण के प्रति कोई इच्छा न रखता हो, वह सिर्फ कृष्ण को ही चाहती है। उनके साथ रास खेलना चाहती है। उसकी खुशी सिर्फ भगवान कृष्ण को खुश देखने में है। 
भगवान श्रीकृष्ण ने बंसी बजायी, क्लीं बीजमंत्र फूंका। 32 राग, 64 रागिनियां। शरद पूनम की रात, मंद-मंद पवन बह रही है। राधा रानी के साथ हजारों सुंदरियों के बीच भगवान बंसी बजा रहे हैं। उन्हीं में भगवान शिव भी भाव विभोर हुए नाच रहे हैं।