Monday, 13 April 2015

द्वापरयुगीन अखिलेश्वर मठ में रुके थे हनुमान

जिनके हृदय में धनुर्धारी राम बसते हों उन रामभक्त हनुमान का समूचा व्यक्तित्व ही अनुपम और अद्वितीय है। सप्त चिरंजीवियों में से एक पवनसुत के भारत के साथ ही दुनिया के दूसरे देशों में काफी मंदिर हैं, उनकी सबकी अपनी-अपनी विशेषताएं हैं मगर अखिलेश्वर मठ की तो बात ही निराली है।
यहां पर आंजनेय हनुमान का ऐसा मंदिर है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इस तरह का मंदिर अन्यत्र कहीं भी नहीं है। मध्यप्रदेश की वाणिज्यिक राजधानी इंदौर से करीब 45 किलोमीटर दूर घने जंगल में स्थित है यह अखिलेश्वर मठ। इसे ओखलेश्वर मठ भी कहा जाता है। यहीं पर प्रतिष्ठित है रुद्रावतार हनुमानजी की दुर्लभ प्रतिमा।
सिद्ध हनुमान की यह प्रतिमा इसलिए दुर्लभ और अनूठी है क्योंकि इनके एक हाथ में शिवलिंग है, जबकि ज्यादातर मूर्तियों के हाथ में द्रोणागिरि होता है। इस बारे में मान्यता है कि राम-रावण युद्ध से पहले रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना के लिए हनुमानजी नर्मदा की सहस्त्रधारा धावड़ी घाट से शिवलिंग लेकर लौट रहे थे। यहां महर्षि वाल्मीकि का आश्रम होने के कारण वे कुछ समय के लिए यहां रुके थे। हालांकि जब तक हनुमानजी शिवलिंग लेकर रामेश्वरम पहुंचे तब तक वहां महादेव की प्राण प्रतिष्ठा हो चुकी थी। ऐसा माना जाता है कि वह शिवलिंग आज भी तमिलनाडु के धनुषकोटि में स्थापित है।

खरगोन जिले के बड़वानी के समीप स्थित इस मठ में एक शिव मंदिर भी है, जिसके बारे में मंदिर के महंत सुभाष पुरोहित बताते हैं कि यह द्वापर काल का है। यहां तीन शिलालेख भी उत्कीर्ण है। हालांकि स्पष्ट नहीं होने के कारण उन्हें पढ़ा नहीं जा सकता। एक मान्यता यह भी है कि यह मंदिर त्रेता युग के राजा श्रियाल के समय का है। च्यवन ऋषि, मार्कंडेय ऋषि, विश्वामित्र आदि मनीषियों की तपस्थली भी रहा है रेवाखंड का यह क्षेत्र। जनश्रुति के अनुसार इस क्षेत्र में स्वयंभुव मनु और शतरूपा ने भी तपस्या की थी। यहां एक कुंड भी है साथ शेषशायी विष्णु का मंदिर भी है।

ऐसा माना जाता है कि महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण का ज्यादातर हिस्सा इसी क्षेत्र में रचा गया। वह स्थान जहां वाल्मीकि आश्रम हुआ करता था, अखिलेश्वर मठ से करीब 20 किलोमीटर दर है। यह ताम्रपूर्ण तमसा नदी के तट पर है, जिसे वर्तमान में 
पूर्णी नदी कहा जाता है। वेद मनीषी और श्री मारुति वेद वेदांग अनुसंधान केन्द्र राजस्थान के प्रमुख यज्ञाचार्य पंडित चिरंजीव शास्त्री इस मठ की विशेषताओं के बारे में कहते हैं कि यह मंदिर बहुत ही प्राचीन है। यहां प्रतिष्ठित शिवलिंग की स्थापना स्वयं श्रीकृष्ण ने की थी।  
इस क्षेत्र को पुन: सुर्खियों में लाने का श्रेय जाता है दिवंगत संत ओंकारदासजी महाराज को। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने पुष्कर के निकट वामदेव की गुफा में कठोर तपस्या की थी तत्पश्चात शिव के आदेश से ही वे अखिलेश्वर मठ आए थे। जिस समय वे आए थे, उस समय घना जगंल तो था ही जंगली जानवर भी यहां काफी संख्या में थे। उन्होंने ही वर्षों से जीर्णशीर्ण इस मंदिर को पुन: जागृत किया था। मठ में करीब चार दशकों से अखंड रामायण पाठ भी चल रहा है। यहां शिवरात्रि, कार्तिक पूर्णिमा, वैकुंठ चतुर्दशी और हनुमान जयंति पर विशेष उत्सव का आयोजन होता है। चैत्र नवरात्रि के दौरान यहां यज्ञ का आयोजन भी होता है।
इस मंदिर की एक और विशेषता यह है कि यहां हनुमान जी को सिर्फ रोहिणी नक्षत्र में ही चोला चढ़ाया जाता है, जबकि अन्य मंदिरों में मंगलवार को शनिवार को चोला चढ़ाया जाता है। हनुमान जयंती की पूर्णिमा पर बजरंगबली का सहस्त्रधारा अभिषेक होता है। 

जनश्रुतियों के मुताबिक इस क्षेत्र में श्रीपाल नामक एक राजा हुए थे, जिन्हें सरियाल के नाम से भी जाना जाता था। अपनी दानप्रियता के कारण राजा श्रीपाल की चर्चा चारों ओर फैली हुई थी। एक बार भगवान शिव राजा की परीक्षा लेने के उद्देश्य से से भेष बदलकर उनके यहां आए और उनसे मांस खाने का अनुरोध किया।

राजा ने अपने स्वभाव के अनुरूप तत्काल जंगली जानवरों का मांस अतिथि को उपलब्ध करा दिया। इस पर अतिथि ने कहा कि वे तो मनुष्य का मांस ही खाएंगे तो इस पर राजा ने कहा कि मैं किसी प्रजाजन का मांस आपको उपलब्ध करा देता हूं। इस पर उन्होंने कहा कि प्रजाजन का मांस आप कैसे उपलब्ध करवा सकते हैं? तत्पश्चात राजा ने खुद को प्रस्तुत कर दिया। उन्होंने यह कहकर इनकार कर दिया कि आप वृद्ध है, अत: आपका मांस नहीं चाहिए।
इस पर राजा ने अपने पुत्र राजकुमार चिन्मयदेव, जिसे चीलिया भी कहा जाता था, का मांस याचक को उपलब्ध करवाया। हालांकि राजा ने पुत्र के मस्तक वाला भाग यह सोचकर रखा कि वे बाद में उसकी कपाल क्रिया कर देंगे ताकि उसे मुक्ति मिल सके। मगर अतिथि ने यह कहकर भोजन करने से इनकार कर दिया मस्तिष्क वाला भाग तो आपने छुपा लिया है, वे तो मस्तिष्क वाला भाग ही खाएंगे।
इस पर राजा और रानी कांतिदेवी (एक नाम चांगना भी) ने बड़े ही दुखी मन से ओखली में कूटकर अपने पुत्र के मस्तिष्क का भाग अतिथि को दे दिया। इसके बाद अखिलेश्वर शिव अपने असली रूप में आ गए। उन्होंने राजा के पुत्र को पुन: जीवित कर दिया और राजा को वरदान भी दिया। 
कहा जाता है कि राजकुमार का सिर ओखली में कूटने के कारण ही गांव का नाम ओखला है और यहां स्थित मंदिर ओखलेश्वर है। ऐसा माना जाता है कि सरियाल राजा के नाम से ही यहां पास में श्रियालिया गांव है और रानी चांगुना के नाम से चंद्रपुरा। राजकुमार चीलिया के नाम से चैनपुरा गांव बसा। इनकी राजधानी कांतिनगर थी, जिसे वर्तमान में काटकूट के नाम से जाना जाता है। 

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