महाराज कमलबीर जी फरमाते हैं कि हम सारी
उम्र इसी भ्रम में निकाल देते हैं कि परमात्मा हम से अलग है। इसी वजह से
हम द्वैत में उलझ जाते हैं और दुनिया रूपी दिखावटी सत्य में फंस कर उसे
बाहर खोजते फिर रहे हैं जबकि वास्तविक सत्य यह है कि सृष्टि में सर्वत्र
वह परमात्मा ही है। इस सृष्टि में विचरने के लिए उसने इंसान व दूसरे रूप
धारण किए हुए हैं क्योंकि वह नूर है, निराकार है, सर्वव्यापक है, इसलिए
उसे जहान में विचरने के लिए शरीर और मन रूपी दो यंत्रों का सहारा लेना
पड़ा। अब इस शरीर में मन भी है, परमात्मा भी है।
मन में मैं (अहंकार) के इसी आवरण के साथ
ही हम अपनी पहचान दुनिया को देते हैं और दुनिया में अपना स्थान बनाते
हैं। इस मैं (अहंकार) के आधार पर दुनिया में बनाए गए संबंध व स्थान
दिखावटी सत्य के साथ चलते हुए हम अपने शरीर के भीतर बस रहे वास्तविक
सत्य-परम पिता परमात्मा से कोसों दूर चले जाते हैं।
जिस परम पिता परमात्मा के लिए यह शरीर
और मन है, हम सारी उम्र उसे ही भूले रहते हैं और सारा जीवन इसी भ्रम में
निकाल देते हैं कि परमात्मा हमसे अलग है। हमेशा इस बात को ध्यान में रखो
कि तुम वही परमात्मा का रूप आत्मा हो बल्कि मैं तो कहूंगा परमात्मा ही हो,
जिसने यह शरीर व मन धारण किए हुए हैं। सच्चाई तो यह है कि परमात्मा
सर्वव्यापक है, नूर है और वही सारी सृष्टि को चला रहा है। जब हमारे भीतर
यह समझ उतर जाती है कि मैं (शरीर) नहीं हूं तो हमारा संबंध चेतनता के साथ
हो जाता है। जब हम अपनी चेतनता के साथ जुड़ते हैं तो हमारा देहाभ्यास छूटने
लगता है। फिर हमारी हालत ऐसी हो जाती है कि हमारे अंदर से यही आवाज आती
है- तुम मेरे पास होते हो, कोई दूसरा नहीं होता।
जैसे-जैसे हम चेतनता से जुड़ते हैं,
हमारा होश जागने लगता है, विवेक जागने लगता है फिर हमें यह समझ भी आने
लगती है, कि हमारे जीवन में प्रकट होने वाले गम, भय, चिंता आदि तो कुछ भी
नहीं थे, ये सब तो हमारे मन की कल्पना थी। हमारे जीवन में जो खुशी प्रकट
हुई, वह भी नकली थी, और जो गम आया, वह भी नकली था। अपने आत्म-केंद्र में
स्थित होकर ही परम पिता परमात्मा की विशालता का एहसास होता है।
यही विराट रूप भगवान कृष्ण ने अर्जुन
को दिखलाया। अब प्रश्र यह पैदा होता है कि हम चेतनता से जुड़ें कैसे? इसके
लिए सबसे पहले अपने शरीर को शांत करें, फिर मन में उठने वाले विचारों को
शांत करें। इसके लिए हमें कुछ ज्यादा नहीं करना बल्कि शरीर व मन दोनों से
ही अपना ध्यान हटा लेना है। अर्थात् अपनी सुरती बाहर से मोड़ कर अपने अंदर
लेकर जानी है। भीतर क्या मिलेगा-शून्य, शून्य से ही हम शांति की ओर आगे
बढ़ते हैं।
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