महाभारत एक धर्मयुद्ध ही नहीं कर्तव्यगाथा
भी है। इसमें गीता का ज्ञान मोह एवं अज्ञान से ग्रस्त मानव को जीवन में
कर्तव्य की सर्वोच्चता का बोध करवाता है। समाज एवं देश की उन्नति के लिए
सभी को अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन करना चाहिए।
आज
से लगभग 5 हजार वर्ष पूर्व मार्गशीर्ष माह की शुक्ल एकादशी को महाभारत
युद्ध में कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि पर अर्जुन ने हथियार डाल दिए थे और
श्री कृष्ण से कहा था कि प्रभु मेरे सामने सभी भाई-बंधु, गुरु आदि खड़े हैं
और मैं इन पर वार नहीं कर सकता। मैं युद्ध से हट रहा हूं।
अर्जुन
के इस तरह कर्म से विमुख होकर मोह में बंधने को श्रीकृष्ण ने अनुचित
ठहराया। अर्जुन युद्ध के लिए तैयार हो जाए व सत्य को जान जाए, इस अभिप्राय
से श्री कृष्ण ने उन्हें कुछ उपदेश दिया था। यही उपदेश गीता है।
गीता
के जीवन-दर्शन के अनुसार मनुष्य महान है, अमर है, असीम शक्ति का भंडार है।
गीता को संजीवनी विद्या की संज्ञा भी दी गई है। मनुष्य का कर्तव्य क्या
है? इसी का बोध कराना गीता का परम लक्ष्य है।
श्री
कृष्ण के इस उपदेश के बाद ही अर्जुन अपना कर्तव्य पहचान पाए थे, फलस्वरूप
उन्होंने युद्ध किया, सत्य की असत्य पर जीत हुई और कर्म की विजय हुई। गीता
में कुल 18 अध्याय हैं और महाभारत का युद्ध भी 18 दिन ही चला था। गीता में
कुल 700 श्लोक हैं। गीता में ज्ञान को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। ज्ञान
की प्राप्ति से ही मनुष्य की सभी जिज्ञासाओं का समाधान होता है, इसीलिए
गीता को सर्वशास्त्रमयी भी कहा गया है।
श्री
कृष्ण ने अर्जुन ही नहीं मनुष्य मात्र को यह उपदेश दिया है कि कर्म करो और
फल की चिंता मत करो। फल की इच्छा रखते हुए भी कोई काम मत करो।
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