Saturday, 25 April 2015

क्यों की जाती है पीपल की पूजा?

एक पौराणिक कथा के अनुसार लक्ष्मी और उसकी छोटी बहन दरिद्रा विष्णु के पास गई और प्रार्थना करने लगी कि हे प्रभो! हम कहां रहें? इस पर विष्णु भगवान ने दरिद्रा और लक्ष्मी को पीपल के वृक्ष पर रहने की अनुमति प्रदान कर दी। इस तरह वे दोनों पीपल के वृक्ष में रहने लगीं।

विष्णु भगवान की ओर से उन्हें यह वरदान मिला कि जो व्यक्ति शनिवार को पीपल की पूजा करेगा, उसे शनि ग्रह के प्रभाव से मुक्ति मिलेगी। उस पर लक्ष्मी की अपार कृपा रहेगी।
शनि के कोप से ही घर का ऐश्वर्य नष्ट होता है, मगर शनिवार को पीपल के पेड़ की पूजा करने वाले पर लक्ष्मी और शनि की कृपा हमेशा बनी रहेगी।

इसी लोक विश्वास के आधार पर लोग पीपल के वृक्ष को काटने से आज भी डरते हैं, लेकिन यह भी बताया गया है कि यदि पीपल के वृक्ष को काटना बहुत जरूरी हो तो उसे रविवार को ही काटा जा सकता है।
गीता में पीपल की उपमा शरीर से की गई है। 'अश्वत्थम् प्राहुख्‍ययम्' अर्थात अश्वत्‍थ (पीपल) का काटना शरीर-घात के समान है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी पीपल प्राणवायु का केंद्र है। यानी पीपल का वृक्ष पर्याप्त मात्रा में कार्बन डाई ऑक्साइड ग्रहण करता है और ऑक्सीजन छोड़ता है।

संस्कृत में को 'चलदलतरु' कहते हैं। हवा न भी हो तो पीपल के पत्ते हिलते नजर आते हैं। ' पात सरिस मन डोला'- शायद थोड़ी-सी हवा के हिलने की वजह से तुलसीदास ने मन की चंचलता की तुलना पीपल के पत्ते के हिलने की गति से की गई है।

नचिकेता की कहानी

शाम का समय था। पक्षी अपने-अपने
घोसले की ओर लौट रहे थे, पर वह बढ़ा जा रहा था, बिना किसी थकान और पछतावे के। उसे अपनी मंजिल तक पहुंचना ही था। यही उसके पिता की आज्ञा थी। उसका लक्ष्य था यमपुरी। वही यमपुरी, जहां यमराज निवास करते थे। उसे यमराज से ही मिलना था। यही उसके पिता का आदेश था।

लगातार तीन पहर तक चलने के बाद वह यमपुरी के द्वार पर जा पहुंचा। वहां पर दो यमदूत पहरा दे रहे थे।

उन्होंने जब उस बालक को देखा तो आश्चर्यचकित रह गए। कौन है यह बालक, जो मौत के मुंह में चला आया? दोनों सोचने लगे। उसमें से एक यमदूत ने गरजती आवाज में उससे पूछा- 'हे बालक, तू कौन है और यहां क्या करने आया है?'
मेरा नाम नचिकेता है और मैं अपने पिता की आज्ञा से यमराजजी के पास आया हूं।' उस बालक ने धीरता के साथ उत्तर दिया।

'लेकिन क्यों मिलना चाहते हो तुम यमराज से?' दूसरे यमदूत ने प्रश्न किया।

'क्योंकि मेरे पिताश्री ने उन्हें मेरा दान कर दिया है।'

नचिकेता की बात सुनकर दोनों यमदूत हैरान रह गए। ये कैसा अजीब बालक है। इसे मृत्यु का भय नहीं। यमराज से मिलने चला आया। उन्होंने उसे डराना चाहा, पर नचिकेता अपने निर्णय के आगे सूई की नोंक भर भी न डिगा। वह बराबर यमराज से मिलने की इच्‍छा प्रकट करता रहा।

इस पर एक यमदूत बोला- 'वे इस समय यमपुरी में नहीं हैं। तीन दिन बाद लौटेंगे, तभी तुम आना।'
'कोई बात नहीं, मैं तीन दिन तक प्रतीक्षा कर लूंगा।' नचिकेता ने उत्तर दिया और वहीं द्वार के पास बैठ गया। सहसा उसकी आंखों के आगे बीती हुई एक-एक घटना चित्र की भांति घूमने लगी।

नचिकेता के पिता ऋषि वाजश्रवा ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया था। विद्वानों, ऋषि-मुनियों और ब्राह्मणों को उसने यज्ञ में आमंत्रित किया। ब्राह्मणों को आशा थी कि यज्ञ की समाप्ति पर वाजश्रवा की ओर से उन्हें अच्छी दक्षिणा मिलेगी, लेकिन जब यज्ञ समाप्त हुआ और वाजश्रवा ने दक्षिणा देनी शुरू की तो सभी आश्चर्यचकित रह गए। दक्षिणा में वह उन गायों को दे रहा था, जो कि बूढ़ी हो चुकी थीं और दूध भी न देती थीं।

यज्ञ के प्रारंभ होने से पूर्व वाजश्रवा ने घोषणा की थी वह यज्ञ में अपनी समस्त सं‍पत्ति दान कर देगा। इसी कारण यज्ञ में कुछ ज्यादा ही लोग उपस्‍थित हुए थे। पर जब उन्होंने दान का स्तर देखा तो मन ही मन नाराज होकर रह गए। क्रोध तो उन्हें बहुत आया पर उनमें से कोई कुछ न कह सका। 
वाजश्रवा के पुत्र नचिकेता से यह न देखा गया। संपत्ति के प्रति अपने पिता का यह मोह उसे बर्दाश्त न हुआ। वह अपने पिता के पास जाकर बोला- 'पिताजी, ये आप क्या कर रहे हैं?'

'देखते नहीं हो, मैं ब्राह्मणों को दान दे रहा हूं।' वाजश्रवा ने कहा।

'लेकिन ये गायें तो बूढ़ी हैं, जबकि आपको अच्छी गायें दान में देनी चाहिए।' नचिकेता ने विनम्रतापूर्वक कहा।
'क्या तुम मुझसे ज्यादा जानते हो कि कौनसी चीज दान में देनी चाहिए, कौनसी नहीं?' वाजश्रवा ने झल्लाकर प्रश्न किया।

'हां पिताजी।' नचिकेता ने कहा- 'दान में वह वस्तु दी जानी चाहिए, जो व्यक्ति को सबसे ज्यादा प्रिय हो और सबसे प्रिय तो आपको मैं हूं। आप मुझे किसको दान में देंगे?' 
नचिकेता की इस बात का वाजश्रवा ने कोई उत्तर न दिया पर नचिकेता ने हठ पकड़ ली। वह बार-बार यही प्रश्न करता रहा कि पिताजी आप मुझे किसको दान में देंगे?'

काफी देर तक वाजश्रवा देखता रहा, पर जब नचिकेता न माना तो वह झल्लाकर बोला, 'जा, मैंने तुझे यमराज को दान में दिया।' लेकिन अगले ही पल वाजश्रवा ठिठका। ये उसने क्या कह दिया? अपने इकलौते पुत्र को यमराज को दान में दिया? पर अब क्या हो सकता था?

नचिकेता भी ठहरा दृढ़ निश्चयी। वह कहां पीछे रहने वाला था। पिता की बात सुनकर बोल पड़ा- 'मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा पिताजी, आप बिलकुल चिंतित न हों।'

वाजश्रवा ने बहुतेरा समझाया, पर नचिकेता न माना। उसने सभी परिजनों से अंतिम भेंट की और यमराज से मिलने के लिए चल पड़ा। जिसने भी यह सुना आश्चर्यचकित हुए बिना न रह सका। सभी उसके साहस की प्रशंसा करने लगे।
यमपुरी के द्वार पर बैठा नचिकेता बीती बातें सोच रहा था। उसे इस बात का संतोष था कि वह पिता की आज्ञा का पालन कर रहा था। लगातार तीन दिन तक वह यमपुरी के बाहर बैठा यमराज की प्रतीक्षा करता रहा। तीसरे दिन जब यमराज आए तो वे नचिकेता को देखकर चौंके।

जब उन्हें उसके बारे में मालूम हुआ तो वे भी आश्चर्यचकित रह गए। अंत में उन्होंने नचिकेता को अपने कक्ष में बुला भेजा।

यमराज के कक्ष में पहुंचते ही नचिकेता ने उन्हें प्रणाम किया। उस समय उसके चेहरे पर अपूर्व तेज था। उसे देखकर यमराज बोले- 'वत्स, मैं तुम्हारी पितृभक्ति और दृढ़ निश्चय से बहुत प्रसन्न हुआ। तुम मुझसे कोई भी तीन वरदान मांग सकते हो।' 
यह सुनकर नचिकेता की प्रसन्नता की सीमा न रही। वह बोला- 'पहला वरदान तो आप यह दें कि मेरे पिता क्रोध शांत हो जाएं और वे मुझे पहले कि तरह प्यार करें।'

'ऐसा ही होगा।'

बोले- 'दूसरा वरदान मांगो।' किंतु इस बार नचिकेता सोच में पड़ गया। अब वह क्या मांगे। उसे तो किसी चीज की इच्छा ही नहीं।

अचानक उसे ध्यान आया कि मेरे पिता ने यज्ञ स्वर्ग की प्राप्ति के लिए किया था। क्यों न मैं ही उसे मांगूं? यह सोचकर वह बोला- 'मुझे स्वर्ग की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है?'

यमराज चक्कर में पड़ गए, पर वचन दे चुके थे। इसलिए उन्होंने वह भी बता दिया और तीसरा व अंतिम वरदान मांगने के लिए कहा। नचिकेता कुछ समय तक सोच में डूबा रहा।

फिर बोला- 'आत्मा का रहस्य क्या है? कृपया समझाएं।'

नचिकेता के मुख से इस प्रश्न की आशा यमराज को बिलकुल न थी। उन्होंने उसे और कोई वरदान मांगने को कहा और बोले- 'यह विषय इतना गूढ़ है‍ कि हर कोई इसे नहीं समझ सकता।' पर नचिकेता अपनी बात पर अड़ा रहा और निर्णायक स्वर में बोला- 'अगर आपको कुछ देना ही है तो मेरे इस प्रश्न का उत्तर दें अन्यथा रहने दें, क्योंकि मुझे अन्य कोई भी वस्तु नहीं चाहिए।'

वे उसे आशीर्वाद देते हुए बोले- 'वत्स, ये ऐसा रहस्य है जो मैं भी नहीं जानता। पर यदि तुम ज्ञान प्राप्त करो और विद्या अध्ययन करो तो तुम्हें सिर्फ इसी प्रश्न का ही नहीं बल्कि संसार के सभी प्रश्नों का उत्तर प्राप्त हो सकता है, क्योंकि विद्या वह खजाना है जिसकी बराबरी संसार की कोई दूसरी वस्तु नहीं कर सकती।'

उसके बाद यमराज ने नचिकेता को आशीर्वाद देकर उसे उसके पिता के पास वापस भेज दिया।

वहां से लौटने के बाद नचिकेता अध्ययन में लग गया, क्योंकि जीवन की सही राह उसे प्राप्त हो चुकी थी। उसी राह पर चलकर वह एक बहुत बड़ा विद्वान बना और सारे संसार में उसका नाम अमर हो गया
  

  

संत पुंडलिक की मातृ-पितृ भक्ति

संत पुंडलिक माता-पिता के परम भक्त थे। एक दिन पुंडलिक अपने माता-पिता के पैर दबा रहे थे कि श्रीकृष्ण रुक्मिणी के साथ वहां प्रकट हो गए, लेकिन पुंडलिक पैर दबाने में इतने लीन थे कि उनका अपने इष्टदेव की ओर ध्यान ही नहीं गया।

तब प्रभु ने ही स्नेह से पुकारा, 'पुंडलिक, हम तुम्हारा आतिथ्य ग्रहण करने आए हैं।'

पुंडलिक ने जब उस तरफ दृष्टि फेरी, तो रुक्मिणी समेत सुदर्शन चक्रधारी को मुस्कुराता पाया।

उन्होंने पास ही पड़ी ईंटें फेंककर कहा, 'भगवन! कृपया इन पर खड़े रहकर प्रतीक्षा कीजिए। पिताजी शयन कर रहे हैं, उनकी निद्रा में मैं बाधा नहीं लाना चाहता। कुछ ही देर में मैं आपके पास आ रहा हूं।' वे पुनः पैर दबाने में लीन हो गए। 
पुंडलिक की सेवा और शुद्ध भाव देख भगवान इतने प्रसन्न हो गए कि कमर पर दोनों हाथ धरे तथा पांवों को जोड़कर वे ईंटों पर खड़े हो गए। किंतु उनके माता-पिता को निद्रा आ ही नहीं रही थी। उन्होंने तुरंत आंखें खोल दीं। पुंडलिक ने जब यह देखा तो भगवान से कह दिया, 'आप दोनों ऐसे ही खड़े रहे' और वे पुनः पैर दबाने में मग्न हो गए।

भगवान ने सोचा कि जब पुंडलिक ने बड़े प्रेम से उनकी इस प्रकार व्यवस्था की है, तो इस स्थान को क्यों त्यागा जाए? और उन्होंने वहां से न हटने का निश्चय किया।

पुंडलिक माता-पिता के साथ उसी दिन भगवत्‌धाम चले गए, किंतु श्रीविग्रह के रूप में ईंट पर खड़े होने के कारण भगवान 'विट्ठल' कहलाए और जिस स्थान पर उन्होंने अपने भक्त को दर्शन दिए थे, वह 'पुंडलिकपुर' कहलाया। इसी का अपभ्रंश वर्तमान में प्रचलित 'पंढरपुर' है।

महाराष्ट्र में विट्ठल को विठोबा भी कहा जाता और पंढरी, पंढरीनाथ, पाण्डुरंग, विट्ठल, विट्ठलनाथ आदि नामों से भी बुलाया जाता है।
 

नागपंचमी पर्व : नागदेव को दूध न पिलाएं क्योंकि..

भारतीय संस्कृति में धार्मिक मान्यताओं के आधार पर अग्नि, सूर्य, सर्प व पितर का सर्वाधिक महत्व है। नागपंचमी के दिन उपवास रखकर पूजन करना सर्व कल्याणकारी माना गया है

श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन नागपंचमी के पर्व को लोग बड़ी श्रद्धा और आस्‍था से मनाते आ रहे हैं। महाकाल की इस नगरी में राजाधिराज स्वयं बाबा महाकाल का वास है। महाकाल की नगरी में नागदेव के पूजन का अपना अलग ही महत्व है।

पढ़ेपूजन विधि

नागपंचमी पर्व के इस दिन स्नान करके गोबर से नाग बनाए जाते हैं। मुख्य द्वार के दोनों ओर दूध, दूब, कुशा, चंदन, अक्षत, पुष्प आदि से नागदेव का पूजन किया जाता है। पुराणों के अनुसार दूध से सर्प को स्नान कराने से सर्प भय से मुक्ति मिलती है। देश के अलग-अलग प्रांतों में नागदेव की अलग-अलग तरह से पूजन संपन्न की जाती है।

पूजन सामग्री :

नागपंचमी के पर्व पर नागदेव के पूजन बांबी से लाई गई मिट्टी में चने, या गेहूं की धानी, ककड़ी, दूध, अक्षत, हल्दी, कूंकू इत्यादि संपन्न किया जाता है। नाग प्रतिमा का दूध, दही, घृत, मधु का पंचामृत बनाकर स्नान कराना चाहिए। इसके बाद चंदन, गंध से युक्त जल चढ़ाना चाहिए।

नागदेव को दूध को नहीं पिलाने की अपील

विशेषज्ञॅसर्प को दूध पिलाना गलत बताया गया है। उनके अनुसार सर्प के लिए दूध हानिकारक होता है, जबकि भारतीय पौराणिक परंपराओं के अनुसार वर्षों से नागदेव को लोग दूध पिलाते आ रहे हैं। विगत 2-3 वर्षों से नागदेव को दूध न पिलाने की अपील की जा रही है। इसको कुछ लोग उचित मान रहे हैं तो कई लोगों का कहना है कि इस तरह की नई-नई वैज्ञानिक बातों को लाकर लोगों की श्रद्धा व आस्थाओं के साथ धोखा किया जा रहा है जिससे हमारी भारतीय संस्कृति की परंपराओं को नष्ट करने की योजना है।

सपेरों पर रहेगी नजर

नागपंचमी के पर्व के दिन शहर की तमाम गलियों में 'सांप को दूध पिलाओ' की आवाजें सुनाई देती थीं, जो कि आजकल सुनाई नहीं देती हैं। प्रशासन द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि बड़ी ही बेरहमी व अमानवीय तरीके से सांपों के दांतों व इसके विष को निकालने से इसका असर सर्प के फेफड़ों पर होने से कुछ दिन बाद इनकी मृत्यु हो जाती है और दांत निकालते समय 80 प्रतिशत सर्प मर जाते हैं। इस कारण वन विभाग की टीम द्वारा सपेरों पर सख्ती से नजर रखी जाएगी।

घरों में बनती है दाल-बाटी

नागपंचमी पर्व की एक पौराणिक मान्यता है कि इस दिन लोग अपने रसोईघरों के चूल्हों पर तवा नहीं रखते हैं। इस कारण पूरे मालवांचल के प्रत्येक घर में दाल-बाटी का ‍अधिक प्रचलन है।

नागदेव के पूजन से लाभ

नागदेव के पूजन करने व इनके मंत्रों के जाप करने से कभी-कभी घर में सर्प प्रवेश नहीं करता है। नागदेव के मंत्र 'ॐ कुरु कुल्ले हुं फट स्वाहा' के जाप से नागदेव प्रसन्न होते हैं और काटने से मृत्यु नहीं होती है। यदि मृत्यु हो भी जाए तो उसे मुक्ति मिलती है।

सीता नवमी की पौराणिक कथा

सीता नवमी की पौराणिक कथा के अनुसार मारवाड़ क्षेत्र में एक वेदवादी श्रेष्ठ धर्मधुरीण ब्राह्मण निवास करते थे। उनका नाम देवदत्त था। उन ब्राह्मण की बड़ी सुंदर रूपगर्विता पत्नी थी, उसका नाम शोभना था। ब्राह्मण देवता जीविका के लिए अपने ग्राम से अन्य किसी ग्राम में भिक्षाटन के लिए गए हुए थे। इधर ब्राह्मणी कुसंगत में फंसकर व्यभिचार में प्रवृत्त हो गई।

अब तो पूरे गांव में उसके इस निंदित कर्म की चर्चाएं होने लगीं। परंतु उस दुष्टा ने गांव ही जलवा दिया। दुष्कर्मों में रत रहने वाली वह दुर्बुद्धि मरी तो उसका अगला जन्म चांडाल के घर में हुआ। पति का त्याग करने से वह चांडालिनी बनी, ग्राम जलाने से उसे भीषण कुष्ठ हो गया तथा व्यभिचार-कर्म के कारण वह अंधी भी हो गई। अपने कर्म का फल उसे भोगना ही था।
 
इस प्रकार वह अपने कर्म के योग से दिनों दिन दारुण दुख प्राप्त करती हुई देश-देशांतर में भटकने लगी। एक बार दैवयोग से वह भटकती हुई कौशलपुरी पहुंच गई। संयोगवश उस दिन वैशाख मास, शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि थी, जो समस्त पापों का नाश करने में समर्थ है।
 
सीता (जानकी) नवमी के पावन उत्सव पर भूख-प्यास से व्याकुल वह दुखियारी इस प्रकार प्रार्थना करने लगी- हे सज्जनों! मुझ पर कृपा कर कुछ भोजन सामग्री प्रदान करो। मैं भूख से मर रही हूं- ऐसा कहती हुई वह स्त्री श्री कनक भवन के सामने बने एक हजार पुष्प मंडित स्तंभों से गुजरती हुई उसमें प्रविष्ट हुई। उसने पुनः पुकार लगाई- भैया! कोई तो मेरी मदद करो- कुछ भोजन दे दो।
 
इतने में एक भक्त ने उससे कहा- देवी! आज तो सीता नवमी है, भोजन में अन्न देने वाले को पाप लगता है, इसीलिए आज तो अन्न नहीं मिलेगा। कल पारणा करने के समय आना, ठाकुर जी का प्रसाद भरपेट मिलेगा, किंतु वह नहीं मानी। अधिक कहने पर भक्त ने उसे तुलसी एवं जल प्रदान किया। वह पापिनी भूख से मर गई। किंतु इसी बहाने अनजाने में उससे सीता नवमी का व्रत पूरा हो गया।
 
अब तो परम कृपालिनी ने उसे समस्त पापों से मुक्त कर दिया। इस व्रत के प्रभाव से वह पापिनी निर्मल होकर स्वर्ग में आनंदपूर्वक अनंत वर्षों तक रही। तत्पश्चात् वह कामरूप देश के महाराज जयसिंह की महारानी काम कला के नाम से विख्यात हुई। जातिस्मरा उस महान साध्वी ने अपने राज्य में अनेक देवालय बनवाए, जिनमें जानकी-रघुनाथ की प्रतिष्ठा करवाई। इस दिन जानकी स्तोत्र, रामचंद्रष्टाकम्, रामचरित मानस आदि का पाठ करने से मनुष्य के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। 
 
अत: सीता नवमी पर जो श्रद्धालु माता जानकी का पूजन-अर्चन करते है, उन्हें सभी प्रकार के सुख-सौभाग्य प्राप्त होते हैं। 

नवग्रह पीड़ाहर स्तोत्र

ग्रहों से होने वाली पीड़ा का निवारण करने के लिए इस स्तोत्र का पाठ अत्यंत लाभदायक है। इसमें सूर्य से लेकर हर ग्रहों से क्रमश: एक-एक श्लोक के द्वारा पीड़ा दूर करने की प्रार्थना की गई है-
ग्रहाणामादिरात्यो लोकरक्षणकारक:। विषमस्थानसम्भूतां पीड़ां हरतु मे रवि: ।।1।।
रोहिणीश: सुधा‍मूर्ति: सुधागात्र: सुधाशन:। विषमस्थानसम्भूतां पीड़ां हरतु मे विधु: ।।2।।
भूमिपुत्रो महातेजा जगतां भयकृत् सदा। वृष्टिकृद् वृष्टिहर्ता च पीड़ां हरतु में कुज: ।।3।।
उत्पातरूपो जगतां चन्द्रपुत्रो महाद्युति:। सूर्यप्रियकरो विद्वान् पीड़ां हरतु मे बुध: ।।4।।
देवमन्त्री विशालाक्ष: सदा लोकहिते रत:। अनेकशिष्यसम्पूर्ण:पीड़ां हरतु मे गुरु: ।।5।।
दैत्यमन्त्री गुरुस्तेषां प्राणदश्च महामति:। प्रभु: ताराग्रहाणां च पीड़ां हरतु मे भृगु: ।।6।।
सूर्यपुत्रो दीर्घदेहा विशालाक्ष: शिवप्रिय:। मन्दचार: प्रसन्नात्मा पीड़ां हरतु मे शनि: ।।7।।
अनेकरूपवर्णेश्च शतशोऽथ सहस्त्रदृक्। उत्पातरूपो जगतां पीडां पीड़ां मे तम: ।।8।।
महाशिरा महावक्त्रो दीर्घदंष्ट्रो महाबल:। अतनुश्चोर्ध्वकेशश्च पीड़ां हरतु मे शिखी: ।।9।।

भावार्थ -

ग्रहों में प्रथम परिगणित, अदिति के पुत्र तथा विश्व की रक्षा करने वाले भगवान सूर्य विषम स्थानजनित मेरी पीड़ा का हरण करें ।।1।।

दक्षकन्या नक्षत्र रूपा देवी रोहिणी के स्वामी, अमृतमय स्वरूप वाले, अमतरूपी शरीर वाले तथा अमृत का पान कराने वाले चंद्रदेव विषम स्थानजनित मेरी पीड़ा को दूर करें ।।2।।

भूमि के पुत्र, महान् तेजस्वी, जगत् को भय प्रदान करने वाले, वृष्टि करने वाले तथा वृष्टि का हरण करने वाले मंगल (ग्रहजन्य) मेरी पीड़ा का हरण करें ।।3।।

जगत् में उत्पात करने वाले, महान द्युति से संपन्न, सूर्य का प्रिय करने वाले, विद्वान तथा चन्द्रमा के पुत्र बुध मेरी पीड़ा का निवारण करें ।।4।।

सर्वदा लोक कल्याण में निरत रहने वाले, देवताओं के मंत्री, विशाल नेत्रों वाले तथा अनेक शिष्यों से युक्त बृहस्पति मेरी पीड़ा को दूर करें ।।5।।

दैत्यों के मंत्री और गुरु तथा उन्हें जीवनदान देने वाले, तारा ग्रहों के स्वामी, महान् बुद्धिसंपन्न शुक्र मेरी पीड़ा को दूर करें ।।6।।

सूर्य के पुत्र, दीर्घ देह वाले, विशाल नेत्रों वाले, मंद गति से चलने वाले, भगवान् शिव के प्रिय तथा प्रसन्नात्मा शनि मेरी पीड़ा को दूर करें ।।7।।

विविध रूप तथा वर्ण वाले, सैकड़ों तथा हजारों आंखों वाले, जगत के लिए उत्पातस्वरूप, तमोमय राहु मेरी पीड़ा का हरण करें ।।8।।

महान शिरा (नाड़ी)- से संपन्न, विशाल मुख वाले, बड़े दांतों वाले, महान् बली, बिना शरीर वाले तथा ऊपर की ओर केश वाले शिखास्वरूप केतु मेरी पीड़ा का हरण करें।।9।।

Wednesday, 22 April 2015

करवा चौथ की पौराणिक लोककथा

भारत त्योहारों का देश है। करवा चौथ के व्रत संबंध में कई लोककथाएं प्रचलित हैं। एक बार पांडु पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी नामक पर्वत पर गए। इधर द्रोपदी बहुत परेशान थीं। उनकी कोई खबर न मिलने पर उन्होंने कृष्ण भगवान का ध्यान किया और अपनी चिंता व्यक्त की। 
 
कृष्ण भगवान ने कहा - बहना, इसी तरह का प्रश्न एक बार माता पार्वती ने शंकरजी से किया था। तब शंकरजी ने माता पार्वती को करवा चौथ का व्रत बतलाया। इस व्रत को करने से स्त्रियां अपने सुहाग की रक्षा हर आने वाले संकट से वैसे ही कर सकती हैं जैसे एक ब्राह्मण ने की थी। 
 प्राचीन काल में एक ब्राह्मण था। उसके चार लड़के एवं एक गुणवती लड़की थी। एक बार लड़की मायके में थी, तब करवा चौथ का व्रत पड़ा। उसने व्रत को विधिपूर्वक किया। पूरे दिन निर्जला रही। कुछ खाया-पीया नहीं, पर उसके चारों भाई परेशान थे कि बहन को प्यास लगी होगी, भूख लगी होगी, पर बहन चंद्रोदय के बाद ही जल ग्रहण करेगी। भाइयों से रहा नहीं गया, उन्होंने शाम होते ही बहन को बनावटी चंद्रोदय दिखा दिया। 
 एक भाई पीपल की पेड़ पर छलनी लेकर चढ़ गया और दीपक जलाकर छलनी से रोशनी उत्पन्न कर दी। तभी दूसरे भाई ने नीचे से बहन को आवाज दी - देखो बहन, चंद्रमा निकल आया है, पूजन कर भोजन ग्रहण करो। बहन ने भोजन ग्रहण किया। भोजन ग्रहण करते ही उसके पति की मृत्यु हो गई। 
 अब वह दुखी हो विलाप करने लगी, तभी वहां से रानी इंद्राणी निकल रही थीं। उनसे उसका दुख न देखा गया। ब्राह्मण कन्या ने उनके पैर पकड़ लिए और अपने दुख का कारण पूछा, तब इंद्राणी ने बताया- तूने बिना चंद्र दर्शन किए करवा चौथ का व्रत तोड़ दिया इसलिए यह कष्ट मिला। अब तू वर्ष भर की चौथ का व्रत नियमपूर्वक करना तो तेरा पति जीवित हो जाएगा। 
 उसने इंद्राणी के कहे अनुसार चौथ व्रत किया तो पुनः सौभाग्यवती हो गई। इसलिए प्रत्येक स्त्री को अपने पति की दीर्घायु के लिए यह व्रत करना चाहिए। 
 द्रोपदी ने यह व्रत किया और अर्जुन सकुशल मनोवांछित फल प्राप्त कर वापस लौट आए। तभी से अपने अखंड सुहाग के लिए हिन्दू महिलाएं करवा चौथ व्रत करती हैं।